खांडवप्रस्थ एक जंगल वाला क्षेत्र था, जो महाभारत में पांडवों को दिया गया था, जो आगे चलकर इंद्रप्रस्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । जब हस्तिनापुर का राज्य पांडवों और कौरवों के बीच बाँटा गया था, कृष्ण और दिव्य वास्तुकार विश्वकर्मा की मदद से पांडवों ने इस वीरान जंगल को एक भव्य नगर में बदल दिया। इस नगर का नाम रखा गया इंद्रप्रस्थ, जो आगे चलकर पांडवों की राजधानी बना। यह नगर पांडवों की शक्ति और समृद्धि का प्रतीक बन गया।

युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, अपनी माता कुंती के साथ जंगलों में भटक रहे थे। वे लाक्षागृह की भयंकर आग से किसी तरह बचकर निकले थे। सबको लगा था कि वे जलकर मर गए, लेकिन वे तो छिपकर अपनी अगली चाल सोच रहे थे।
समय बीता, और फिर एक दिन वे पहुंचे पंचाल देश, जहाँ हो रहा था द्रौपदी का स्वयंवर। अर्जुन ने अपने कौशल से धनुष पर बाण चढ़ाया और कठिन परीक्षा को पास कर लिया। द्रौपदी उनकी अर्धांगिनी बनी।
अब पांडवों की पहचान दुनिया के सामने आ चुकी थी। राजा द्रुपद और बाकी सारे राजाओं को पता चला कि ये तो वही पांडव हैं, जो मरे नहीं थे! द्रौपदी के विवाह के बाद पांडव कुंती सहित हस्तिनापुर लौटे। जनता ने उनका स्वागत किया, जैसे अपने खोए हुए बेटे वापस लौट आए हों।
लेकिन एक को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई – दुर्योधन। वह सोचने लगा: “अगर पांडव फिर से सत्ता में आ गए, तो मेरा क्या होगा?” उसने पिता धृतराष्ट्र को समझाया कि पांडवों को कुछ भी न दिया जाए। लेकिन धृतराष्ट्र के मन में कहीं न कहीं पांडवों के लिए स्नेह था। उन्होंने एक समझौता किया ; “पांडवों को आधा राज्य मिलेगा, लेकिन वह हिस्सा जो वीरान और सुनसान है – खांडवप्रस्थ।

यह क्षेत्र एक घना, जंगली, और लगभग निर्जन इलाका था – जहाँ पर खांडव वन फैला हुआ था। दुर्योधन को लगता था कि पांडव उस जंगल में कुछ भी नहीं कर पाएंगे और खुद ही हार मान लेंगे। किन पांडवों ने इसे एक अवसर की तरह लिया।जब पांडव खांडवप्रस्थ पहुँचे, तो वहाँ चारों ओर सिर्फ जंगल ही जंगल था। न कोई नगर, न कोई राजमहल, न कोई सभ्यता। वहाँ न कोई घर था, न रास्ते, और न ही खेती लायक ज़मीन – चारों ओर सिर्फ़ पेड़, झाड़ियाँ और जंगली जानवरों का बसेरा था। भीम ने गुस्से में कहा; “हमें तो धोखा मिला है’ । लेकिन युधिष्ठिर मुस्कराए और बोले, “धरती चाहे जैसी हो, मेहनत करने वालों के हाथ में वह भी सोना बन जाती है।” पांडवों ने तय किया कि वे इस जंगल को एक सुंदर नगर में बदलेंगे।
तभी वहाँ आए भगवान श्रीकृष्ण आते हैं , जो हर समय पांडवों के साथ खड़े रहते थे। फिर उन्होंने देवताओं के विश्वकर्मा को बुलाया – जो स्वर्ग के नगर बनाते थे।और शुरू हुआ निर्माण कार्य । लेकिन उससे पहले एक काम जरूरी था – इस पूरे खांडव वन को साफ करना, ताकि नगर बसाया जा सके।
अग्निदेव ने कृष्ण और अर्जुन से मदद मांगी – वे इस वन को जलाना चाहते थे, लेकिन इंद्रदेव हर बार बारिश करके अग्नि बुझा देते थे। अग्निदेव को एक शाप था कि जब तक वे खांडव वन को पूरी तरह भस्म नहीं करेंगे, तब तक उनकी शक्ति पूरी तरह लौटेगी नहीं। लेकिन समस्या यह थी कि खांडव वन की रक्षा करता था इंद्रदेव क्योंकि वहाँ उसका प्रिय नाग तक्षक और कई अन्य दिव्य प्राणी रहते थे। हर बार जब अग्निदेव वन जलाने की कोशिश करते, इंद्रदेव वर्षा कर उसे बुझा देते।
उन्होंने अर्जुन को एक दिव्य गांडीव धनुष और अक्षय तूणीर (जिसमें से कभी भी बाण खत्म नहीं होते) दिया। कृष्ण और अर्जुन ने उन्हें सुरक्षा दी, और एक भयंकर युद्ध हुआ। अर्जुन ने अपने गांडीव धनुष से आकाश को ढक दिया, और कृष्ण ने इंद्र की वर्षा को रोक दिया। तीन दिन और तीन रातों तक जंगल जलता रहा। पेड़, झाड़ियाँ, और जंगली जानवर – सब भस्म हो गए। अंततः, खांडव वन जलकर भस्म हो गया, और ज़मीन साफ हो गई। कुछ विशेष जीवों को अर्जुन ने जीवनदान भी दिया, जैसे कि मय दानव, जो बाद में इंद्रप्रस्थ का अद्भुत भवन बनाता है।

अब वहाँ एक भव्य नगर बना – ऊँचे महल, सुंदर रास्ते, सुव्यवस्थित सभा भवन। इस नगर का नाम रखा गया – इंद्रप्रस्थ। यह पांडवों की नई राजधानी बनी। यह पांडवों के उत्थान और महाभारत की राजनीति का एक मुख्य केंद्र बन गया। यह नगर इतना सुंदर और समृद्ध था कि स्वर्ग की नगरी अमरावती की बराबरी करता था।
इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि:
- अगर परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों भी, तो मेहनत और सही मार्गदर्शन से कुछ भी बदला जा सकता है।
- एक वीरान जंगल भी मेहनती और नीतिपरायण लोगों के हाथ में एक स्वर्णिम नगरी बन सकता है।