भीष्म, जिनका मूल नाम देवव्रत था, महाभारत के सबसे सम्मानित और जटिल पात्रों में से एक हैं। वे त्याग, कर्तव्य और सिद्धांतों के प्रतीक माने जाते हैं, लेकिन उनका जीवन दुख, नैतिक द्वंद्व और गहरी आत्मपीड़ा से भी भरा हुआ है।
भीष्म पितामह का जन्म हस्तिनापुर के राजा शांतनु और गंगा देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। वे साधारण मानव नहीं थे। वे आकाशीय देवता अष्ट वसुओं में से एक प्रभास वसु के अवतार थे, जिन्हें एक ऋषि के श्राप के कारण पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा। गंगा ने पहले सात वसुओं को जन्म देते ही नदी में प्रवाहित कर दिया, जिससे वे श्राप से मुक्त हो गए। आठवें वसु, देवव्रत को, पूरा जीवन जीने का श्राप था, इसलिए गंगा उन्हें साथ ले जाकर ऋषियों के पास शिक्षा और शस्त्रविद्या दिलाने लगीं। उन्होंने वशिष्ठ, भृगु और परशुराम जैसे महर्षियों से ज्ञान और युद्धकला सीखी।

देवव्रत के जीवन का सबसे निर्णायक क्षण तब आया जब उनके पिता शांतनु को सत्यवती, एक मछुआरे की पुत्री से प्रेम हो गया। सत्यवती के पिता ने विवाह की शर्त रखी कि उनके पुत्र ही राजगद्दी पर बैठेंगे। अपने पिता के प्रेम की खातिर देवव्रत ने न केवल राजसिंहासन का त्याग किया, बल्कि यह भी प्रतिज्ञा की कि वे जीवन भर ब्रह्मचारी रहेंगे, ताकि उनके वंश से कोई उत्तराधिकारी ना हो।
उनकी इस कठिन प्रतिज्ञा ने समस्त संसार को चकित कर दिया। देवताओं ने उन्हें भीष्म नाम दिया — “जिसने भयंकर प्रतिज्ञा ली हो”। उनकी इस त्याग भावना से प्रसन्न होकर शांतनु ने उन्हें वरदान दिया कि वे इच्छा मृत्यु के अधिकारी होंगे — यानी जब चाहें तब मृत्यु को वरण कर सकते हैं।
भीष्म ने हस्तिनापुर के लिए राजा नहीं बनकर भी राजा से बढ़कर कार्य किया। वे शांतनु से लेकर पांडु और धृतराष्ट्र तक तीन पीढ़ियों के संरक्षक, मार्गदर्शक और योद्धा बने रहे। उन्होंने कौरवों और पांडवों को शिक्षा दी, उन्हें धर्म और राजनीति का पाठ पढ़ाया।
परंतु उनका जीवन कई नैतिक जटिलताओं से भी भरा रहा। एक उदाहरण है जब उन्होंने अंबा, अंबिका और अंबालिका का स्वयंवर से अपहरण कर उन्हें अपने भाई विचित्रवीर्य के लिए लाया। अंबा की स्थिति विशेष रूप से दुखद हो गई, क्योंकि वह किसी और से प्रेम करती थी। जब भीष्म ने उससे विवाह करने से इनकार किया, तो अंबा ने प्रतिशोध की प्रतिज्ञा ली और बाद में शिखंडी के रूप में जन्म लिया — जो भीष्म की मृत्यु का कारण बना।

महाभारत के युद्ध के समय भीष्म एक गंभीर नैतिक संकट में फँस गए। वे पांडवों से प्रेम करते थे और जानते थे कि धर्म उनके पक्ष में है, लेकिन अपनी कर्तव्यनिष्ठा और प्रतिज्ञा के कारण वे कौरवों के पक्ष से लड़े। उन्होंने युद्ध टालने का कई बार प्रयास किया, परंतु अंततः उन्होंने धर्म की बजाय अपने वचन को प्राथमिकता दी।
दोनों पक्षों ने उनसे समर्थन माँगा, पर उन्होंने कहा कि वे स्वयं किसी के लिए युद्ध नहीं करेंगे, लेकिन कौरवों की सेना के सेनापति बनने के लिए तैयार हैं — इस शर्त पर कि वे पांडवों को जान से नहीं मारेंगे। भीष्म दस दिन तक कौरवों की सेना के प्रधान सेनापति रहे। वे युद्ध में अपराजेय थे। उन्होंने अनेकों योद्धाओं को मार गिराया, लेकिन पांडवों के विरुद्ध कभी पूरी शक्ति से नहीं लड़े।
उनकी मृत्यु आसान नहीं थी। कृष्ण ने पांडवों को सुझाव दिया कि वे शिखंडी को ढाल बनाकर भीष्म पर आक्रमण करें, क्योंकि भीष्म एक स्त्री (या पूर्व स्त्री) के विरुद्ध युद्ध नहीं कर सकते थे। अर्जुन, शिखंडी की आड़ लेकर, भीष्म पर बाणों की वर्षा करता रहा।
दसवें दिन, भीष्म धराशायी हो गए। उनका शरीर बाणों की शैया पर टिक गया, पर उन्होंने मृत्यु को वरण नहीं किया। वे 58 दिनों तक बाणों की शैया पर पड़े रहे, क्योंकि उन्होंने इच्छा मृत्यु का वरदान लिया था। वे उत्तरायण के शुभ समय की प्रतीक्षा कर रहे थे।
उनके अंतिम दिनों में उन्होंने पांडवों, विशेषकर युधिष्ठिर, को धर्म, राजनीति, न्याय और जीवन के कर्तव्यों पर महान उपदेश दिए। ये उपदेश शांतिपर्व और अनुशासनपर्व में संकलित हैं — जो आज भी भारतीय नैतिकता और शासन की गूढ़ व्याख्याएं माने जाते हैं।
उत्तरायण का समय आने पर भीष्म ने शरीर त्याग दिया। देवताओं ने उनका स्वागत किया, और पृथ्वी ने एक महान आत्मा को खोया।

भीष्म भारतीय साहित्य और संस्कृति में कर्तव्यनिष्ठा, त्याग और आदर्शवाद के प्रतीक माने जाते हैं। उनका जीवन यह प्रश्न खड़ा करता है — क्या कर्तव्य के नाम पर अधर्म का समर्थन करना सही है? क्या उन्होंने हस्तिनापुर और धर्म की रक्षा के लिए सही निर्णय लिए?
इन जटिल प्रश्नों के बावजूद, भीष्म एक ऐसे योद्धा के रूप में याद किए जाते हैं जिसने स्वयं को पूरी तरह त्याग दिया, एक ऐसे मार्गदर्शक के रूप में जिन्होंने धर्म का सार बताया, और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिनके जीवन में त्याग और तपस्या का चरम रूप दिखता है।