अर्जुन महाभारत के पाँच पांडवों में से तीसरे पुत्र थे और उन्हें अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर एवं महान योद्धा माना जाता है। वे न केवल युद्ध कौशल में पारंगत थे, बल्कि धर्म, विनम्रता, भक्ति और तपस्या में भी अद्वितीय थे। अर्जुन ने अपनी शिक्षा गुरुकुल में प्राप्त की थी, और उनके मुख्य गुरु थे द्रोणाचार्य, जो महर्षि भारद्वाज के पुत्र और उस समय के सबसे श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्र विद्वान थे।
अर्जुन गुरु द्रोण के सबसे प्रिय शिष्य बन गए क्योंकि वे अत्यंत एकाग्र, अनुशासित और समर्पित थे। उन्होंने रात में दीपक के बुझने के बाद भी अभ्यास करना शुरू किया, जिससे गुरु ने उन्हें “गुडाकेश” (नींद पर विजय पाने वाला) कहा। एक बार गुरु द्रोण ने अर्जुन से प्रभावित होकर कहा था: “तुम मुझसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनोगे!”

द्रोणाचार्य ने अर्जुन को धनुर्विद्या की बारीकियाँ समझाईं—कान पक कें ध्यान, बाँसुरी बजाती हवा पर ध्यान और तीर छोड़ते समय पूरे शरीर का संपूर्ण संतुलन। “पंछी की आँख” प्रतियोगिता में अर्जुन अकेला ऐसा शिष्य थे जिसने बिना द्रष्टव्य को हिलाए तीर से लक्ष्य भेद दिया, जिससे उन्होंने गुरु का पूर्ण विश्वास और श्रेष्ठता का दर्जा पा लिया। अर्जुन रोज़ उगते सुरज से पहले उठकर जंगलों में अकेले अभ्यास करते—निशाना साधना, दूर-दूर के लक्ष्य पर तीर चुपके से छोड़ना, हवा की चाल समझकर वाणों की पूंछ पकड़ना।
अर्जुन ने शिक्षा हस्तिनापुर के गुरुकुल में ली, जहाँ उनके साथ पांडवों और कौरवों दोनों ने अध्ययन किया। यह गुरुकुल एक प्रकार की सैन्य और शास्त्र शिक्षा संस्था थी, जहाँ बच्चों को युद्ध-कला, अस्त्र-विद्या, नीति, धर्म, राजनीति और व्यवहार सिखाया जाता था। अर्जुन में एक अद्भुत धैर्य, नैतिकता, कर्तव्यनिष्ठा, और विनम्रता थी। वे नीति और धर्म के मार्ग पर चलने वाले योद्धा थे। उनका चरित्र त्याग, अनुशासन और भक्ति से युक्त था।
बाल्यकाल में अर्जुन की चंचलता और उत्सुकता सबको भाती थी। एक दिन गुरुकुल में द्रोणाचार्य ने चंदन का पंछी बनाया और सभी शिष्यों से उस पर निशाना साधने को कहा। धीर-गंभीर द्यूतों के बीच अर्जुन ने धैर्य से लक्ष्य को भेदा, और पत्थर-सी ठंडी आँखों से गुरु की प्रशंसा अर्जित की। द्रोणाचार्य ने उसे प्यार से अपने घुटनों पर बैठाकर कहा, “अर्जुन, तेरे भीतर वह शक्ति और शौर्य है, जो देवता भी कोई-कभी नहीं पाते।”

समय के साथ अर्जुन ने धनुर्विद्या के हर रहस्य को आत्मसात कर लिया—गाण्डीव धनुष से गिरनार पर्वत जितना बड़ा लक्ष्य भी विभाजित कर डाला। फिर एक दिन उन्होंने शिवजी की तपोभूमि पर जाकर अनशन-व्रत करके परम पशुपतास्त्र की प्राप्ति की। पर्वत की चट्टानों पर बैठे शिवजी ने स्वयं उन्हें परीक्षा में अखरोट की लत्ता तोड़ने को कहा। अर्जुन ने सबक ध्यान से सुना, और अपनी बाण-कौशल से उत्तर दिया—तब शिवजी प्रसन्न होकर बोले, “हे वीर, यह पशुपतास्त्र तुझे शत्रु विनाश के लिए सौंपता हूँ।”
लेकिन महान योद्धा वह नहीं, जिसमें केवल अस्त्र-शस्त्र की शक्ति हो; महान वह है, जो धर्म के मार्ग पर चलते हुए अपने कर्म को शुद्ध बनाए रखे। कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन ने युद्ध के पहले कदम रखने से इनकार किया, तब कृष्णजी ने उन्हें भगवद्-गीता का दिव्य उपदेश दिया। हर श्लोक में अर्जुन का हृदय नया साहस पाकर धड़क उठा, और उन्होंने कहा, “हे कृष्ण, अब मैं रुकने की कल्पना भी नहीं कर सकता।”
युद्धभूमि में अर्जुन ने भीष्म पितामह को बाणबद्ध करते हुए युद्ध का आरंभ किया, जयद्रथ को चारों ओर से घेरे बिना ही निशानदेही से मार गिराया, और अंत में कर्ण का सामना करके अपने सबसे घनिष्ठ मित्र की परीक्षा में भी विजय प्राप्त की। पराक्रम के इस विराट पर्व के बीच भी अर्जुन ने कभी अधर्म का सहारा नहीं लिया, क्योंकि कृष्णजी ने उन्हें बताया था कि सत्य और धर्म ही सच्ची विजय होते हैं।
यही था अर्जुन का अद्भुत सफर—दैवीय ऊर्जा, गुरु-द्रोणाचार्य का आशीर्वाद, कठोर तपस्या से प्राप्त आस्त्र, और कृष्णजी का मार्गदर्शन मिलकर उसे महाभारतकाल का सर्वश्रेष्ठ योद्धा बना गए। आज भी जब कहीं कोई धनुर्विद्या की परीक्षा होती है, तो अर्जुन की ही कथा से प्रेरणा ली जाती है—उस वीर की कथा, जिसने अपने सबसे बड़े शत्रु को नहीं, बल्कि स्वयं के डर को हराया।