महाभारत काल में पांडव (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव) बहुत योग्य, पराक्रमी और जनता में प्रिय थे। युधिष्ठिर तो धर्मराज के नाम से प्रसिद्ध थे और हस्तिनापुर की प्रजा चाहती थी कि वही अगला राजा बने। लेकिन दुर्योधन को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं थी। वह चाहता था कि हस्तिनापुर का राज्य केवल उसी को मिले।
कौरवों के पिता धृतराष्ट्र को लगता था कि पांडवों की लोकप्रियता हस्तिनापुर में तेजी से बढ़ रही है। खासकर युधिष्ठिर, जो जनता में बेहद प्रिय थे, और उन्हें अगला राजा बनाने की बातें होने लगी थीं। इससे दुर्योधन और शकुनि बहुत असहज हो गए। उन्होंने पांडवों को मारने की योजना बनाई, लेकिन इतनी चतुराई से कि हत्या एक “दुर्घटना” लगे।

दुर्योधन के मामा शकुनि एक बहुत ही चालाक और षड्यंत्रकारी व्यक्ति था। उसने पांडवों को एक दुर्घटना में मारने की योजना बनाई। उसने एक महल बनवाने का सुझाव दिया — लेकिन ऐसा महल जो बहुत ही ज्वलनशील (जलने वाली सामग्री से भरा) हो। इसका नाम रखा गया: “लाक्षागृह“। लाक्षा’ का अर्थ होता है लाह या लाख, एक ऐसी चिपचिपी चीज़ जो बहुत आसानी से जल जाती है। इसमें लकड़ी, घी, सूखी घास, मोम आदि मिलाया गया। उद्देश्य था: महल में आग लगाकर पांडवों को जीवित जला देना।
पांडवों को खत्म करने के लिए दुर्योधन और शकुनि ने एक ऐसा महल बनवाने की योजना बनाई जो देखने में तो सुंदर हो, लेकिन भीतर से एक मौत का जाल हो। उनका उद्देश्य था कि एक दिन इस महल में आग लगाकर पांडवों को जीवित जला दिया जाए, और ये सब एक “दुर्घटना” लगे। इसका पूरा उद्देश्य था कि जब आग लगे तो महल तुरंत धू-धू कर जलने लगे और उसमें से कोई बाहर ना निकल सके।
दुर्योधन ने एक कारीगर को बुलाया जिसका नाम था “पुरूचार्य” (या पौर)। यह व्यक्ति बहुत ही चतुर और दुर्योधन का विश्वासपात्र था। उसे गुप्त रूप से आदेश मिला: “तुम ऐसा महल बनाओ जो सुंदर भी लगे, लेकिन भीतर से मौत का जाल हो।” पुरूचार्य ने वह महल बनाया और उसका नाम रखा गया – “लाक्षागृह” (लाक्षा = लाख + गृह = घर)।
इस महल का निर्माण वाराणावत नामक नगर में किया गया। यह स्थान राजधानी हस्तिनापुर से दूर था, ताकि अगर कुछ होता है तो राजधानी को प्रभावित न करे और राजा धृतराष्ट्र को दोष न लगे। देखने में वह महल बेहद सुंदर, रंगीन और भव्य था — एक शाही भवन जैसा। लेकिन पूरा ढांचा इस तरह बनाया गया था कि यदि एक कोने में भी आग लगाई जाए, तो पूरी इमारत कुछ ही मिनटों में जल उठे। लेकिन पूरा ढांचा इस तरह बनाया गया था कि यदि एक कोने में भी आग लगाई जाए, तो पूरी इमारत कुछ ही मिनटों में जल उठे।

लेकिन पूरा ढांचा इस तरह बनाया गया था कि यदि एक कोने में भी आग लगाई जाए, तो पूरी इमारत कुछ ही मिनटों में जल उठे। जब दुर्योधन और शकुनि ने पांडवों को वाराणावत भेजने की योजना बनाई और वहाँ लाक्षागृह तैयार किया, तो विदुर को इस षड्यंत्र की भनक लग गई। धृतराष्ट्र के सामने विदुर खुलकर कुछ नहीं कह सकते थे, इसलिए उन्होंने युधिष्ठिर को संकेतों और गूढ़ भाषा में समझाया। विदुर ने कहा: “जो व्यक्ति संकट को पहले ही पहचान लेता है और नाव बना लेता है, वह नदी पार कर जाता है। जो बुद्धिमान होता है, वह कभी नहीं डूबता।”
युधिष्ठिर, जो बहुत बुद्धिमान और शांत स्वभाव के थे, उन्होंने विदुर के शब्दों की गहराई को तुरंत समझ लिया। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि: लाक्षागृह में कोई धोखा है, उन्हें कोई जाल में फँसाने की कोशिश कर रहा है, और विदुर उनकी मदद कर सकते हैं।
विदुर ने एक विश्वसनीय कारिगर को पांडवों की सेवा में भेजा, जिसने महल के नीचे से जंगल की ओर एक गुप्त सुरंग बनानी शुरू की। यह सब काम बेहद गुप्त रखा गया। यह काम रात के समय किया जाता था ताकि किसी को शक न हो। यह सुरंग महल से निकलकर जंगल में जाकर खुलती थी। सुरंग बनती गई, और पांडवों ने दिन में बिल्कुल सामान्य जीवन जिया, जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो। पांडवों ने पूरे समय दुर्योधन और शकुनि के जाल में फँसे दिखने का नाटक किया।
जब सब कुछ तैयार हो गया, तो पांडवों ने खुद ही महल में आग लगाई — ताकि सबको लगे कि वे जलकर मर गए — और वे सुरंग के रास्ते जंगल में चले गए। आग इतनी भयंकर थी कि पूरा लाक्षागृह धू-धू कर जल गया। पांडवों को लाक्षागृह के षड्यंत्र के बारे में विदुर की बुद्धिमानी और सांकेतिक चेतावनी के कारण समय रहते पता चल गया। उनकी धैर्य, योजना और चुपचाप कार्य करने की क्षमता ने उन्हें मृत्यु से बचाया।
लाक्षागृह की कहानी का महत्व ;
- यह घटना दिखाती है कि कैसे पांडवों ने बुद्धि, धैर्य और सहयोग से एक बहुत बड़ा संकट टाल दिया।
- यह शकुनि और दुर्योधन की पहली बड़ी साजिश थी पांडवों के विरुद्ध।
- यही वह घटना है जिससे पांडवों का गुप्त जीवन (वनवासपूर्व) शुरू होता है।